अज्ञेय ने प्रेम, अनन्यता, तन्मयता एवं निष्काम समर्पण की उर्वर भाव भूमि पर अपने औपन्यासिक पात्रों को सृजित किया है। इनका प्रेम आत्मपीड़ा की कठोर जमीन से उपजा है। इनके पात्र परंपरागत नैतिक मूल्यों को सामाजिक संस्कारों से एवं बंधनों की भट्ठी में झोंक कर जला चुके होते हैं। विशेषकर नारियाँ प्रेम न्यौछावर करने के क्रम में अपने को सूली पर चढ़ाने में जरा भी नहीं हिचकतीं। इनका प्रेम सामाजिक पाप पुण्य और विधि निषेध की सीमा से कोसों दूर होता है। ये अपनी आत्मपीड़ा एवं आत्मव्यथा को जीवन का सर्वस्व मानती हैं। इनके जीवन के दुख वेदना एवं यातना जीवन की ही प्रेरक शक्तियाँ बन जाती हैं। अज्ञेय हिंदी के संभवतः पहले उपन्यासकार हैं जिन्होंने फ्रायडीय मनोविज्ञान के आलोक में हिंदी उपन्यास को व्यक्तिवादी धरातल पर मानव जीवन के अंतःसत्य को नया आयाम दिया है तथा जीवन के धर्मों को शरीर से ऊपर उठाकर वैयाक्तिक चेतना के स्तर पर नए अर्थ एवं नए संदर्भ दिए हैं। अहं, विद्रोह, वेदना, आत्मोन्नयन, घृणा, ईर्ष्या आदि को भी नई परिभाषा दी है। नए मूल्यों की प्रतिष्ठा की तो पुरानों को नया अर्थ भी दिया।
'शेखर : एक जीवनी' एवं 'नदी के द्वीप' दोनों औपन्यासिक कृतियों में जीवन की यर्थाथता को विधिवत चित्रित भले ही न किया गया हो किंतु प्रेम और दर्द के बीच व्यक्ति को ऊर्जावान बनाने का यत्न अवश्य किया गया है। शेखर में तो अधिकांश विद्रोह का आख्यान है किंतु 'नदी के द्वीप' में तो विशिष्ट प्रेम कथा संवेदना की धारा में उन्मुक्तता एवं उदारता के साथ प्रवहमान होती है। स्वयं रचयिता ने भी 'नदी के द्वीप' को एक दर्द भरी कहानी माना है। उनका मानना है कि - 'दुख ही व्यक्ति को माँजता है। दुख सबको माँजता है और चाहे स्वयं को मुक्ति देना वह न जाने, किंतु जिनको माँजता है, उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखे।' अपने कथन के समर्थन में अज्ञेय डी. एच. लॉरेंस की कविता को भी उद्धृत करते है - 'दुख, मेरी समझ में पर्याप्त दुख ही हमें स्वतंत्र करता है, एक साथ वफादार एवं बेवफा होने के लिए, जैसा कि हम सभी को होना पड़ता है।' वस्तुतः अज्ञेय का दुख आत्मपीड़ा को ऐसी तपस्या मानता है जिसमें तपकर आत्मा का शुद्धीकरण हो जाता है -
'तुमने एक ही बार वेदना में मुझे जना था, माँ पर मैं बार बार अपने को जनता हूँ, और मरता हूँ। पुनः जनता हूँ और पुनः करता हूँ और फिर जनता हूँ, क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ।' (नदी के द्वीप) ठीक वैसा ही दर्द रेखा के पत्र में भी परिलक्षित होता है - 'सचमुच यह दर्द मेरी सहनशक्ति से परे है उसे नहीं सँभाल सकती... कोई भी नहीं सँभाल सकता, शायद प्यार का दर्द, इसलिए शायद प्यार रहता नहीं, दर्द रह जाता है। केवल ईश्वर सँभाल सकता है अगर वह है, या कहूँ कि जो सँभाल सकता है वही ईश्वर' ...सचमुच नदी के द्वीप एक दर्द भरी टीस भरी प्रेम कथा है। दर्द उनका जो उपन्यास के पात्र है - रेखा, गौरा, भुवन और कुछ हद तक चंद्र माधव का। यह उपन्यास समाज के जीवन का चित्र नहीं है। इसके पात्र सामान्य जन नहीं है वरन् एक खास वर्ग से आते हैं। स्वयं अज्ञेय ने इस उपन्यास को उस खास समाज एवं उसके व्यक्तियों के जीवन का चित्र एवं सच्चा मित्र भी माना है। नेमिचंद जैन को तो इस उपन्यास की असामाजिकता में वैसी ही असामाजिकता दिखाई देती है जैसी मीरा के प्रेम की रही होगी। धन्य हैं जैन जी जैसे आलोचक जिन्हें रेखा मीरा दिखाई देती है। मीरा के प्रेम में जिन्हें फ्रायड दिखते हैं। उनकी आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करें अन्यथा स्वर्ग या नरक जहाँ कहीं कहीं भी भटक रही होगी, अराजकता ही फैला रही होगी।
इस उपन्यास में प्रेम का चित्रण एवं प्रेम का स्वरूप देह के समर्पण एवं आदान प्रदान तक सिमट कर रह गया है। फ्रायडीय मत इसे किसी विकृति का परिणाम भले ही न माने अथवा नेमिचंद जैन को मीराबाई से जुड़े कुछ विकृत तथ्य झूठ के पुलिंदे में लिपटे हुए जरूर मिले होंगे। यदि नेमिचंद जैन को प्रेम की अनुभूति शारीरिक मिलन में अधिक सार्थकता के साथ दिखाई देती है तो फिर प्रेम को वासना का पर्याय बताना भी उतना ही सार्थक लगना चाहिए। मैं प्रेम को महमामंडित करने के क्रम में शरीर की कुछ जायज माँग को नकारने का पक्षधर नहीं हूँ किंतु नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर विवाह जैसी संस्थाओं को न केवल नकारते हुए बल्कि उसकी धज्जियाँ उड़ाते हुए प्रेम के कसीदे पढ़ने का कायल भी नहीं। फ्रायडीय मनोविज्ञान अथवा मनोविश्लेषणवादी चिंतन की आड़ में बड़ी चतुराई से प्रेम यौन वर्जनाओं से संत्रस्त नहीं है तथा इसमें चित्रित स्त्री-पुरुष का प्रेम असामाजिक होते हए भी व्यक्तित्व को विकृत नहीं करता। भला यह कैसे संभव है? यदि प्रेम असामाजिक है तो व्यक्तित्व विकृत क्यों नहीं होगा? यह बात कम से कम मेरे भी गले के नीचे कहाँ उतरने वाली है? एक ओर उपन्यासकार ने स्वयं स्वीकार किया है कि इसे उपन्यास के सभी पात्र मध्य वर्ग के नौकरी पेशा वाले शिक्षित /वैज्ञानिक/अध्येता हैं।
साहित्य में वह सभी यर्थाथ है जिसके पीछे साहित्यकार की अपनी अनुभूति है और जिसे वह दूसरों को अनुभूत करा सकता है। मानव अनुभूति के विषय इसी एवं अनंत हो सकते है। इनका सीमा निर्धारण कोरा प्रयत्न होगा। श्लील एवं अश्लील के प्रश्न को तत्कालीन सामाजिक नैतिकता का प्रश्न मानने वाले अज्ञेय जी का मत जो छिपाया जाता है वही अश्लील होता है क्योंकि व्यक्ति वही कुछ छिपाना चाहता है जो उसे अथवा समाज को स्वीकार्य नहीं होता। वे आगे कहते हैं - 'देखना अश्लील नहीं है, अधूरा देखना अश्लील है'। इस कथन को तर्क की कसौटी पर कहीं भी सही ठहराया जा सकता है। किंतु फ्रायडीय यर्थाथ के नाम पर कदाचित ऐसा चित्रण नहीं करना चाहिए जिससे पाठकों की दुरुचिपूर्ण, कुरुचिपूर्ण, कुत्सित एवं पशु प्रवृत्ति जागने पाए। स्वस्थ प्रेम अथवा रोमांस मानव जीवन में ताजगी ला सकता है और रोटी, कपड़ा, मकान की तरह आवश्यक भी है। सामान्य मध्यवर्गीय धारणा है कि रोमांस विलासी जीवन के क्रोड़ में फलता फूलता है किंतु यह तथ्यपरक नहीं है। मानव जीवन में प्रेम तत्व चिरंतन सत्य है और साहित्य में मानव यदि मौजूद है तो रोमांस भी उतना ही शाश्वत है किंतु रोमांस के नाम पर अश्लीलता परोसने में बाबा अज्ञेय भी कम नहीं। 'शेखर-शशि' प्रसंग द्वारका प्रसाद के 'घेरे की बाँह' से कहाँ भिन्न है? किंतु तथाकथित आधुनिकता अथवा फ्रायडीय मनोविज्ञान/ मनोविश्लेषण के झकोरों ने रोमांस की परिभाषा ही नहीं बदल दिया है वरन् साहित्य में अश्लीलता ने अधिकृत एवं वैधानिक स्थान प्राप्त कर लिया है। नदी के द्वीप में रोमांस का अतिनग्न एवं अतियर्थाथवादी स्वर मुखरित हुआ है -
हेमेंद्र जब मलयम मेम का जिक्र करता है और कहता है - 'औरत दुनिया की मुसीबतों की जड़ है लेकिन उसके बगैर रहा नहीं जाता तो हेमेंद्र आँख मारते हुए कह उठता है - दोस्त सुना है तुम्हारा काम उसके बगैर भी चल जाता है।' क्यों न हो पुरुष पुरुष प्रेम को अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने जायज ठहरा दिया है। लेकिन अदालतें तो संवैधानिक नियमों एवं प्रावधानों को समय के साथ परिभाषित करती रहती है लेकिन संसद तो उससे बड़ी अदालत है वह क्यों मौन है? यदि अदालत एवं संसद अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों का पालन करने में असमर्थ रहती है तो अंतिम अदालत तो जनता की बचती है जहाँ के फैसले अभी आना शेष है।
कश्मीर के तंबू में भुवन रेखा के प्रणय सह वासना प्रसंगों को लेखक मर्यादित एवं संकेतात्मक रख सकता था किंतु वह अति नग्नवादी हो जाता है - 'कंबल के भीतर उसका हाथ रेखा का वक्ष सहलाने लगा ...सहसा वह चौंका, झीने रेशम के भीतर उसके कुचाग्र ऐसे थे जैसे छोटे छोटे हिम पिंड... सहसा रेखा ने बाँहें बढ़ाकर उसे खींच कर छाती से लगा लिया, उसके दाँतों का बजना बंद हो गया क्योंकि दाँत उसने भींच लिए थे, भुवन को उसने इतनी जोर से भींच लिया कि उन छोटे छोटे हिम पिंडों की शीतलता भुवन की छाती में चुभने लगी फिर स्निग्ध गरमाई आई..., रेखा की बंद पलकें नए तवे सी चमक रही थीं'।
दूसरी बार भुवन लौटकर जब रेखा से मिसेज ग्रीब्ज के स्थान पर मिला जहाँ उसने नौकरी कर ली थी, तो निकट आने से पूर्व बैठे ही बैठै, वहीं से उसने बाँहें बढ़ाई कि भुवन लपक कर पहुँच गया, एक बाँह से उसने रेखा को घेर लिया, उसके माथे पर गाल टेक कर स्तब्ध रह गया। रेखा के दिल की धड़कन उसी जाँघ पर हल्का-हल्का ताल देने लगी।' इस प्रकार के उत्तेजक एवं कामुक शब्द चित्रों से समाज के संयम को बहुत बड़ा आघात पहुँचेगा, मर्यादाएँ टूटेंगी एवं मनुष्यता पशुता की ओर अग्रसर हो सकती है। इस प्रकार का नग्न रोमांस संस्कृतनिष्ठ शब्दावली या आंग्लभाषा में वर्णित प्रसंग समाज को साहित्य के किस रस से परिचित कराएँगे यह बड़ा प्रश्न है। आधुनिकता की स्वीकृति इस कदर न दृष्टिगोचर होनी चाहिए कि ईश्वर, भाग्य विवाह, प्रेम एवं नैतिकता आदि के संबंध में स्थापित मूल्य एवं इनसे जुड़ी आस्था खंड खंड न हो जाय। रेखा ने अपने मानदंड खुद गढ़ लिए है। उसके लिए शारीरिक नैतिकता एवं शुचिता का कोई महत्व नहीं है विवाह जैसी संस्था का असुंदर रूप ही देखा है। भुवन के साथ शारीरिक संबंध में जीवन के सुंदरतम को देखा है, भोगा है। उसके लिए यौन तुष्टि सत्यं शिवम् सुंदरम् है। अपने मत को बड़ी चतुराई से रेखा शब्दों के भ्रमजाल द्वारा सही सिद्ध करती है - 'अब इतना ही मानती हूँ कि भीतर से जो प्रेरणा है अगर उसके साथ पाप का, अपराध का बोध नहीं जुड़ा है तो वह ठीक निर्धारित है, वही नैतिक है।' नैतिकता एवं अनैतिकता मानकों एवं मूल्यों की कसौटी पर कसी जाती हैं भीतरी प्रेरणा से नहीं क्योंकि प्रेरणा की प्रेरक शक्तियाँ कौन सी हैं, यह जाने बिना कोई कयास लगाना बेमानी होगा। 'नदी के द्वीप' में नदी कम है द्वीप अधिक हैं। नदी प्रवाह का प्रतीक है और पात्र द्वीप। प्रवाह अर्थात कथा का प्रवाह। कथा नदी की भाँति उनका स्पर्श कर उन्हें सार्थक बनाने का प्रयास करती है लेकिन प्रदूषित नदी का प्रवाह द्वीपों को किस हद तक स्वस्थ वातावरण के साथ गीला करती होगी यह कहना इतना आसान नहीं। अनुभूति के स्तर पर नदी का कथा प्रवाह द्वीपों को जल राशि से बार बार भिगोता तो है किंतु जलराशि उदासीन क्यों है? इसकी चिंता अज्ञेय नहीं करते हैं। रेखा बुद्धि की तीव्र संवेदना से गुथी हुई रूप का अदृश्य कवच सा पहने हुए है। वह समाज के सापेक्ष एवं निरपेक्ष दोनों है। अपनी सुविधा एवं सहूलियत के हिसाब से। स्त्री सौंदर्यगर्विता होती है किंतु उसमें यदि बुद्धि का अतिरेक हो तो फिर क्या कहने? इसीलिए जिसने भी आते जाते रेखा को देखा, बिना पूछे न रह सका। इतना ही नहीं उसकी दृष्टि से टपकती लार का लिसलिसापन को अनुभव भी कर सका है।' रेखा में दर्प और दीनता एक साथ परिलक्षित होती है जो बिरले किसी में दिखाई देता है। यौन तुष्टि की आकांक्षा भी है किंतु दीनता नहीं है, हो भी कैसे 'दिनकर' ने कह दिया है - ऊर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं...' इंद्र का आयुध झेलने वाला, रेखा के बंकिम नयन के बाण को नहीं झेल पाता है। तभी तो रेखा को पाकर भुवन का शरीर तृप्त होता है, अहं आहत होता है तुष्ट नहीं। रेखा की स्वीकारोक्ति जिसमें वह स्त्री ही नहीं होना चाहती, माँ बनना तो...। सभी आकांक्षाएँ एवं वासना मार चुकी रेखा भुवन के सामने वैसे ही लाचार, एवं पिघलने लगती है जैसे सूर्य के सामने सूर्यमणि।
रेखा नदी के द्वीप की अक्षय कीर्ति हो सकती गौरा के लिए। कर्ण की तरह कवच एवं कुंडल उतार फेंकने के लिए सर्वथा एवं सर्वदा तैयार हो सकती है किंतु समाज उसे असामाजिक ही मानता है। इसीलिए रेखा को भुवन नहीं स्वयं अज्ञेय जो उसके स्रष्टा हैं मार डालते हैं।
पात्रों चरित्र की विशद विवेचना से आलोचक 'नदी के द्वीप' में जीवन के शिवत्व की तलाश करते हैं। शिवत्व की तलाश में 'एक कंठ विषपायी' बने बिना सौंदर्य के श्रेष्ठ मूल्यों तक पहुँचना आसान नहीं होगा। पूरे उपन्यास में रेखा के माध्यम से नारी स्वायत्तता, स्वतंत्रता एवं उससे उपजी चुनौतियों से रेखा दो चार होती है किंतु समाज के साथ उसका टकराव बना रहता है इससे ट्रैजिक बोध गहरा होता है। विषादमय होता है। समाज नहीं की कथाधारा में बहते हुए उन द्वीपों को समग्रता में अंगीकृत एवं मनोविज्ञान को भारतीय पारंपरिक मनीषा सहज रूप से स्वीकारने वाली कहाँ है? क्योंकि यौनाचरण द्वारा नैतिकता का निर्माण सामाजिक ताने बाने एवं नैतिक वर्जनाओं को निस्सार बना देते हैं। उन्मुक्त भोग एवं निर्बंध प्रेम को वासना ही माना जाता है जो चाहे खंडित होकर गिरे चाहे तृप्त होकर गिरते न गिरते रक्तबीज नया जीवन पाकर फिर उठ खड़े होते है। फिर भी अज्ञेय के सभी पात्रों का प्रेम सामाजिक पाप पुण्य एवं विधि निषेध की सीमा से परे है। जीवन के अनेक धर्मों को शरीर से ऊपर उठाते हुए अज्ञेय नए संदर्भ एवं अर्थ देने का प्रयास करते हैं। उन्होंने अहं, विद्रोह, वेदना, आत्मोन्नयन, घृणा, ईर्ष्या आदि को नया स्वर भी दिया किंतु समाज द्वारा मूल्यों पर आधारित मानदंडों की कसौटी पर आंशिक रूप से खरा भले ही उतरा हो किंतु पूर्णरूपेण शायद ही कभी संभव हो क्योंकि पारंपरिक मूल्य पुराने को नया अर्थ देने के पक्ष में कहाँ होते हैं? यथास्थितिवाद बनाए रखने में अपनी अर्थवत्ता समझते हैं।